शुक्रवार, दिसंबर 24

विरह के रंग घुल कर बहे तो दर्द का दरिया बहने लगा

सीमा गुप्ता ने अपनी कलम की रिवायत का निबाह करते हुए काव्य प्रेमियों के लिए अपना दूसरा काव्य ग्रन्थ ''दर्द का दरिया" पेश किया है. इससे पहले उनके द्वारा रचित " विरह के रंग" का साहित्य जगत में पुरजोर स्वागत हुआ है. 54 कविताओं ओर गजलों ओर 35 लघु कविताओं(क्षणिकाओं) का यह संग्रह मात्र शब्दों का ताना बना नहीं अपितु 'दर्द का बेहिसाब दरिया' बन का बहता हुआ पाठकों को अपने साथ साथ बहा ले जाने में पूरी तरह सक्षम बन पड़ता दिखाई देता है.संग्रह का परिचय कराता डॉ. लारी आज़ाद का दो शब्द रूपी लेख -अपने आप में एक खुबसूरत कविता ,एक शानदार ग़ज़ल के जैसा लगा जिसमे सीमा गुप्ता जी का परिचय ओर उनकी रचनाओं का भाव बहुत ही साहित्यिक अंदाज़ में देकर इस रचना संग्रह को साहित्य प्रेमियों तक पहुँचाया है. ओर स्वयं सीमा जी द्वारा लिखी हुई मन की ओस की गर्म बूंदें इस संग्रह को समझने ओर महसूस करने में इतनी सहायक है की पाठकों को देश-काल ओर वातावरण के त्रिगुण देकर इस संग्रह की एक एक रचना को एक एक पंक्ति को ओर एक एक शब्द को पाठक के दिल के करीब पहुचाने ओर उसे काव्य मधु का पान करने को प्रेरित करने की क्षमता उत्पन्न कर देता है
बहुत लोग लिखते हैं ओर बहुत लोग हैं जो दर्द,विरह,ओर आंसुओं पर ही लिखते है --लेकिन इन पर लिखते लिखते निराशावाद तक पहुँच जाते हैं,ओर जिंदगी के कदम कदम के हमराही इन दुखों,दर्दों,विरह वेदनाओं,अधूरेपन,एकाकीपन को एक खलनायक की तरह नकारात्मक रूप में पेश कर के साहित्य ओर इसे पढने वालों को दुखांत स्थिति में पहुंचा कर खड़ा कर देते है लेकिन सीमा गुप्ता की रचनाओं में परिणाम कुछ ओर ही निकलता है विरह यंहा रंग बन जाता है ओर दर्द एक दरिया ओर दोनों किसी भी सूरत में नकारात्मक नहीं है-दोनों में भाव है,बहाव है यौवन है ओर जीवन है.
संग्रह की पहली ही रचना के माध्यम से /मेरे हिस्से का चाँद कभी मुझको भी लौटा दो ना/ कह कर कवयित्री ने कोई मखमली आरजू बयाँ की है या फिर आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने हकों के लिए आवाज़ बुलंद करती हुई औरत का बिम्ब प्रस्तुत किया है -एक बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल पैदा होता है. इस संग्रह में बार बार प्रयुक्त चाँद ओर चांदनी मात्र कवि कल्पना का सुन्दर प्रतीक न होकर स्वछंदता ओर स्वायत्तता का बोध कराता दिखाई देता है .
प्रेम की यंहा पुरजोर ख्वाइश की गई है जिसमे नाम-बदनाम या जायज -नाजायज़ की परवाह भी नहीं होती ,होता है तो सिर्फ प्रेम -विशुद्ध प्रेम.

/है बड़ा दिलनशी प्यार का सिलसिला
मेरे दिल को है तेरे दिल से मिला
तुम मुझे बस यूँ ही प्यार करते रहो
बस यूँ ही, बस यूँ ही,बस यूँ ही/

दर्द का दरिया यंहा दुखों ओर अंधेरों का गुणगान नहीं करता बल्कि एक उम्मीद,एक उपाय -एक स्वस्थ दृष्टीकोण की स्थापना करता हुआ दिखाई देता है.रेशमी किरणों के साये,चाँद का आँचल,चांदनी का नूर,मोतियों की कशमश,उजालों के बदन,सब्र के जुगनू,गुनगुनाती धुप,भावाग्नी के उच्चताप जैसे बिम्बों,प्रतीकों का प्रयोग इस बात की पुष्टि अवश्य करता है की दर्द का दरिया यहाँ किसी अंतहीन सागर में विलीन हो जाने के लिए नहीं बहता-न ही किसी त्रासद अंत की ओर प्रस्थान करता है अपितु एक गतिशील,उर्जावान,स्वायत,स्वछंद निकाय के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है ओर तमाम तरह के संघर्ष के बीच में जीने की बेताबी बरकरार रखता है .चाँद के ही माध्यम से कवयित्री अकेलेपन की बात छेड़ कर बड़ी कुशलता से बता देती है की पहाड़ियों,घाटियों,बादलों,झीलों,सितारों, रात ओर दिन के बीच में चाँद कैसे अकेला जी लेता है अर्थात अकेलेपन में भी बहुत से संगी साथी होते है यथा दुःख,आंसू,भावनाएं,यादें,ओर खुद अकेलापन.निराशा में से आशा की किरणे खोज लाना सीमा जी की कविता की अद्वितीय विशेषता है .
खुबसूरत नज्में ओर ग़ज़लें इस गुलदस्ते में सोने पे सुहागे जैसा दिखती हैं,जिंदगी के बेहद करीब ये रचनाएँ कवयित्री की बहुआयामी प्रतिभा की परिचायक तो हैं ही साथ ही उनकी हिंदी-उर्दू,कविता -ग़ज़ल रूपी गंगा-जमुनी संस्कारों का भी बखान करती है.स्वावलंबन की जरुरत देखिये
/क्यों माँगा था तुम्हे उम्र भर के लिए
खुद सहारा बन जाते तो अच्छा था/

बेहद रोमांटिक ख्वाइशें

/महसूस कर लूँ तुम्हारे होठों पे बिखरी
मोतियों की कशमश को
अपनी पलकों के आस पास/

कविता कहने का ऐसा विशिष्ट अंदाज़ बिरला ही कहीं देखने को मिलता होगा. शब्द ओर भाव दोनों की सुन्दरता कितने संतुलन में है जरा देखिये तो:

/तुम्हे भूल पाऊँ कभी,
वो पल वक़्त की कोख में नहीं /

/रात भर चाँद को चुपके से
हथेली पर उतरा हमने
/

/सच के धरातल का
मौन टूटा तो समझा
शून्य था तेरा आना
'ओर'
एक सवाल यू ही लौट जाना /
किसी भी रचना की शिल्पगत सुदृढ़ता के लिए भाषा का योगदान बहुत महतवपूर्ण होता है,इस संग्रह में कवयित्री ने मानसिक अंतर्द्वंद,विरह वेदना,व्यक्तिगत विसंगतियों ओर जीवन ओर प्रेम की यथार्थ अभिव्यक्ति के लिए सहज ओर सरल भाषा का प्रयोग तो किया ही है साथ ही साथ तत्सम व् उर्दू शब्दावली का मिश्रण इस ग्रन्थ को एक स्तरीय पाठन के अनुकूल बना देताहै .स्पष्टबयानी,चित्रमयता ओर भावानुकुलता जैसी विशेषताएं जगह जगह देखने को मिलती है .सीमा जी ने जहाँ एक ओर सहजानुभूति की अभिव्यंजना के लिए अभिधा एवं लक्षणा शब्द शक्ति का सहारा लिया है वहीँ पर दूसरी ओर सूक्ष्म भावों की प्रस्तुति के लिए बिम्ब एवं प्रतीक योजना भी विशिष्ट अर्थ गरिमा से संयुक्त दिखाई देती है.रचनाओं में भावोनुकुल अलंकारों एवं रसों का समावेश कवयित्री के कवित्व का परिचायक है ;

किसी माहौल ,मंजर महफ़िल से,
कोई रुसवाई न मिले मुझको

इस संग्रह में प्यार है तो शिकवे भी हैं,विरह है तो हौसले भी हैं,आरजुएं हैं तो आशाएं भी है,तड़प है तो संबल भी है,ग़ज़ल है तो आज़ादी भी है कविता है तो रोचकता भी है --प्रेम, विरह और श्रृंगार का त्रिकोण बनता हुआ जरुर दीखता है लेकिन अंतत: जीवन की चुनोतियों को स्वीकार कर लेने का फलसफा उसे सकारात्मकता से भरपूर वृताकार रूप प्रदान कर देता है जिसमे कोई ओर न हो कोई छोर न हो कोई मोड़ न हो कोई शुरुआत न हो कोई समापन न हो बस एक चक्र की भांति निरंतरता हो सम्पूर्णता हो.
निस्संदेह कवयित्री ने जिंदगी की तलाश में अपनी अबोध सी चाहत को कविता का जामा पहनाकर धरती के अलसाये बदन पे इश्क की नई इबादत लिख डाली है,पूरा संग्रह फूट फूट बहता हुआ दरिया-इ-ज़ज्बा हो जाता है हिंदी-उर्दू का यह द्विभाषी संग्रह निश्चित रूप से ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा पढ़ा ओर सराहा जायेगा ओर इसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विमोचन होना इसकी लोकप्रियता को वैश्विक स्तर पर ले जाने में सहायक होगा. मै सीमा जी के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए आशावान हूँ की उनकी लेखनी अनवरत साहित्य जगत की सेवा में सृजन करती रहेगी .
विरह के रंग घुल कर बहे तो दर्द का दरिया बहने लगा
यही प्रेम का रूप शास्वत, हर लफ्ज़ इसका कहने लगा