रविवार, नवंबर 10

जुगनुओं की चमक

जुगनुओं की चमक से क्यों कोई डर बैठे,
हम आसमां की बिजलियाँ भी छू कर बैठे 

ठोकरों से कम ना होती मंज़िलों की चाहतें 
जो गिरने से डर बैठे वो अपने घर बैठे /-

कदमों को रोक लेती है नक़्शों की सरहदें
एक लकीर के इधर हम तो वो उधर बैठे /-


कम नहीं के उनको पलकों पे बिठा लिया,
गवारा ये भी नहीं कोई चढ़ के सर बैठे /-


औकात उसकी ना थी मुहब्बत के लायक,
खता हम ही कर बैठे के उस पे मर बैठे
/-

........(सुरेन्द्र अभिन्न )

सोमवार, अक्तूबर 7

घर से निकलो ,क्या रखा है घर में ,
मंजिले उनकी, जो निकले सफ़र में /

खास हो गई है अब हैसियत मेरी, 
कुछ खासियत है, उसकी नज़र में/-

सीप में गिर के वो बूँद मोती हुई,
क्या होती जो होती अपने घर में /-

अंधेरों को वही चीर के निकलते है,
रखते है जो आग अपने जिगर में /-

एहतियात रखना अब दोस्तों के साथ ,
अफ़वाह सी फ़ैल रही है पूरे शहर में /-

हादसे बिकते है अब लोगों की तरह
सच कहाँ दिखता है किसी भी खबर मे /-

........( सुरेन्द्र 'अभिन्न' 

रविवार, अक्तूबर 6

मैं जब उदास हो जाता हूँ,





मैं जब उदास हो जाता हूँ,
बहुत ही खास हो जाता हूँ -/


वो दरिया बन के मिलते हैं,

मैं जोर की प्यास हो जाता हूँ-/


कब तक रहोगे गुमशुदा ,

मैं तेरी तलाश हो जाता हूँ-/


वो सिमटे तो धरती हो गए,

मैं खुला आकाश हो जाता हूँ-/


धड़कन बना दिल के लिए ,

लब छुएं तो सांस हो जाता हूँ -/


पत्थर दिल कोई मिल जाये,

मैं संग तराश हो जाता हूँ -/


शनिवार, अप्रैल 20

तेरे आने का इंतज़ार है

तुम्हे सोचता हूँ ,
तो पाता हूँ तुम्हे ,
अपने ही आस पास -/
तुम्हे छूने लगता हूँ तो 
टूट जाता है एक और स्वपन -/
ये जो मेरी पलकों पे 
अनगिनत मोती
छुपे हैं इंतज़ार के -/
बस तेरी एक झलक के
तलबगार हैं ..
और जो मेरे लबों पे
आने को बेताब है बरसों से ,
उस मुस्कराहट को
बस तेरे आने का इंतज़ार है -/

शब्दों का घर


मैं शब्दों का घर बना कर ,

तुम्हे छुपा भी नहीं सकता ,

लोग शब्दों के मनमर्जी से

 अर्थ निकाल लेते हैं ........../

भाव समझे बिना

 तुम्हे और मुझे रुसवा कर देंगे ......


मोम की छतरियां






मोम की छतरियों से ,
कड़ी धुप में ...साया बना रहे हो-/
धुप तेज़ होगी 
छतरियां पिघल जाएँगी 
एक मुददत और सही ,
चलो .....
बारिशों का
इंतज़ार करते है
छतरियों के
साए में आने के लिए /

मंगलवार, जनवरी 1

अंतर क्या बारह तेरह में



मात्र अंक ही बदले तो बदलाव कैसा ?

हालात रहे गर ऐसे ही तो चाव कैसा ?

दर्द,गम,बेबसी,भय,दरिंदगी व्याप्त है सब ओर /

सड़क से सत्ता तक हावी हैं,दरिन्दे,डाकू चोर /

लोक लाज रहित घृणित ये लोक राज कैसा ?
...

बेबस मूक बधिर विकलांगो का ये समाज कैसा ?

जो बहन बेटियों की आबरू बचाने में लाचार है,

यादाश्त कमजोर इसकी ,बड़ा विचित्र व्यवहार है

कल तक क्रोधित था ये बड़ा ग़मज़दा भी था /

कानून - व्यवस्था को लेकर ये खफा भी था /

कर रहा है आज तैयारी फिर जश्न मनाने की

कल के गम भुलाने की कुछ जख्म छुपाने की ,

कुछ बदल नहीं सकता तो फिर नया क्या नए साल में /

अंतर क्या बारह तेरह में जो बदलाव न आया इस हाल में /