रविवार, नवंबर 10

जुगनुओं की चमक

जुगनुओं की चमक से क्यों कोई डर बैठे,
हम आसमां की बिजलियाँ भी छू कर बैठे 

ठोकरों से कम ना होती मंज़िलों की चाहतें 
जो गिरने से डर बैठे वो अपने घर बैठे /-

कदमों को रोक लेती है नक़्शों की सरहदें
एक लकीर के इधर हम तो वो उधर बैठे /-


कम नहीं के उनको पलकों पे बिठा लिया,
गवारा ये भी नहीं कोई चढ़ के सर बैठे /-


औकात उसकी ना थी मुहब्बत के लायक,
खता हम ही कर बैठे के उस पे मर बैठे
/-

........(सुरेन्द्र अभिन्न )