शुक्रवार, दिसंबर 19

'अंधेरों में लिपटी रौशनी"


अंधेरों में लिपटी रौशनी हो तुम
लगता है मेरी ज़िन्दगी हो तुम

है जमुना सा वेग ओर गंगा सी पावनता
फिर आंसुओं सी सदा क्यों बहती हो तुम

बसा सकती हो जब ख़ुशी की वादियाँ
क्यों ग़मों की बस्तियों में रहती हो तुम

वक़्त ठहर जाता है तेरे सिसकने से
चमन महक जाते है जब चहकती हो तुम

जाती हो कहाँ अब तक न समझ पाए
कभी ज़मीन तो कभी आसमान से उतरती हो तुम

6 टिप्‍पणियां:

मनीषा ने कहा…

very original and beautiful, defenitely succeeded in showing your beautiful feelings.

"अर्श" ने कहा…

बहोत ही बढ़िया लिखा है आपने साहब
;बहोत खूब कुछ शे'र तो अच्छे वज्नी हैं
ढेरो बधाई आपको साहब...

अर्श

"अर्श" ने कहा…

सुर जी ,आप तो साहब ईद के चाँद हुए बैठे हो ... कोई कहबर है नही है कहाँ हो आप? आपके हौसला अफ़जाईa के लिए बहोत बहोत धन्यवाद ,अभी तो ग़ज़ल की बहोत सारी तकनीक सिखानी है वेसे मेरी ग़ज़लों को पढ़ने के लिए कोई तकनीक हालाँकि नही सिखानी होगी आपको अभी तो अदना हूँ सिखाता जा रहा हूँ....

अर्श

Puneet Sahalot ने कहा…

padhkar bahut achha laga...
mere blog per aapka swagat hai..

Puneet Sahalot

http://imajeeb.blogspot.com

"अर्श" ने कहा…

आपको तथा आपके पुरे परिवार को नव्रर्ष की मंगलकामनाएँ...साल के आखिरी ग़ज़ल पे आपकी दाद चाहूँगा .....

अर्श

Bahadur Patel ने कहा…

अंधेरों में लिपटी रौशनी हो तुम
लगता है मेरी ज़िन्दगी हो तुम

bahut achchha likha hai aapane. badhai.